Same Gotra Marriages And Khap Panchayat

खाप पंचायत परम्परा

पंचायतें समाज विकास के आरम्भ से ही किसी न किसी रूप में चली आ रही हैं। पंचायतें आर्य कबीलों पर आधारित समाजों की विशिष्ट पहचान प्रतीत होती हैं। शुरू में इन पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी भी होती थी परन्तु कालान्तर में यह परम्परा विलुप्त होती चली गई और मध्यकालीन युग में पूर्णत: समाप्त हो गई। ज्ञातव्य है कि हरियाणा के अनेक गाँवों में तालाबों के किनारे शिवालय अथवा शिव मन्दिरों की स्थापना प्राचीन काल से ही प्रचलित है। ग्राम समाज शिवालय या मन्दिर में ही एकत्रिात होकर पूजा, प्रार्थना के साथ-साथ सामाजिक तथा व्यावहारिक चर्चाएँ भी करते थे। इन चर्चाओं के माध्यम से सामाजिक गतिविधियों का संचालन करते समय निर्णय लेने की आवश्यकता पड़ती थी। जब सामूहिक निर्णय लिए जाते थे तो गाँवों के बड़े-बूढ़ों की राय को यथायोग्य सम्मान दिया जाता था। इन्हीं सार्वजनिक सहमतियों के लिए एकत्रिात समाज को गणराज्य तथा पंचायत राज माना गया है। यहीं से इनकी नींव पड़ी है।

ग्रामीण समाज पंचायत के रूप में बहुत से व्यक्तियों के समूह द्वारा विचार करने के उपरान्त निर्णय लेने से पूर्व इन्हीं एकत्रिात व्यक्तियों में से पाँच व्यक्तियों को नामित करते थे और इस फैसले को ‘पंच-फैसले’ अथवा ‘पंचायती फैसले’ की संज्ञा दी जाती थी। सर्वखाप पंचायतों के अभिलेखों मंे अनेक प्रमाण मिलते हैं कि पंचायतों में बैठकर पंच न्याय करते थे। दण्ड देने का तरीका भी सामाजिक पद्धति पर ही टिका हुआ था, क्योंकि जुर्माने के तौर पर एक धेला (अधेला) ही लिया जाता था। सामाजिक बहिष्कार करके हुक्का-पानी बन्द कर दिया जाता था। इस पंचायती फैसले के विरुद्ध अथवा समीक्षा की अपील नहीं होती थी। यद्यपि उसी अथवा उससे बड़ी खाप पंचायतों में इसका पुनर्निरीक्षण अवश्य करा लिया जाता था। दण्डित व्यक्ति यदि फैसला स्वीकार नहीं करता था तो एक-दो दिन में उसे समझ आ जाती थी। मजबूर होकर वह खाप पंचायत में गिड़गिड़ाता हुआ आकर क्षमा याचना करता था।


‘पंच’ शब्द का महत्व


वास्तव में पंचायत का अर्थ है कि पंच जमा आयत अर्थात् पाँचों से बनी आयत अथवा पंचायत। भारतीय संस्Ñति अथवा किसी भी धर्म की ओर दृष्टि डालने पर पाँच शब्द का महत्वपूर्ण प्रयोग मिलता है। यही वह मूल कारण कहा जा सकता है कि इस संस्था को ‘पंचायत’ कहा जाता है। धार्मिक कथाओं, आध्यात्मिक एवं राजनैतिक सभी क्षेत्राों में पाँच शब्द को पर्याप्त महत्व दिया गया है। सिख पंथ में भी पाँच शब्द का अत्यधिक महत्व है। बैसाखी के अवसर पर आनंदपुर के स्थान पर ‘पँज प्यारे’ ही बनाए गये थे। गुरु गोविन्द सिंह जी ने पांच शब्द को ही अपनाया। इसके साथ ही सिक्ख पंथ में पाँच ‘कक्के’ नियत किए गये हैं। हिन्दुओं में हुक्के को ‘पंच प्याला’ कहा जाता है। आर्य लोगांे में ‘पंच महायज्ञ’ विधि भी इसी का प्रमाण है और भारतीय शास्त्रावेत्ताओं ने अपने वार्षिक कलेण्डर को भी ‘पंचांग’ का नाम दिया है।


आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो सर्वविदित है कि हमारी पाँच ही कर्म-इन्द्रियाँ हैं और पांच ही ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हमारे इस शरीर को ‘पंचभूत’ का ही पुतला कहा गया है। मुख्य रूप से वस्त्रा पाँच प्रकार के माने गये हैं। मुख्यत: पाँच ही हथियार माने गये हैं।
‘पाँच’ शब्द का अपना ही राजनीतिक महत्त्व भी है। आरम्भ में राजनैतिक दृष्टि से ही भारत सरकार ने पिछली शताब्दी के पाँचवें दशक में भावी भारत की उन्नति के लिए ‘पंच वर्षीय योजना’ प्रारम्भ की गई। चीन के साथ समझौते का नाम भी ‘पंचशील’ ही रखा। लोकसभा, विधान सभा तथा पंचायतों का कार्यकाल भी पांच वर्ष निर्धारित किया गया। पुराने समय के पांच सदस्यों में चार सदस्य चुने हुए तथा पांचवां राजा अथवा उसका नामित प्रतिनिधि - तब जाकर पंचायत का गठन होता था।
कुदरत में पहले से ही हाथ व पांव की उंगलियाँ भी पाँच-पाँच ही बनी हुई हैं। इन सब बातांे को मिलाकर यह धारणा और भी मज’बूत बनती है कि पाँच शब्द का अपना विशेष महत्त्व है। इसी धारणा के चलते ही हमारे बुजुगो± ने ‘पंचायत’ शब्द में ‘पंच’ अर्थात् पांच शब्द को अपनाया। जनमानस के पटल पर पंचायत की छवि बतौर ‘पंच परमेश्वर’ सर्वव्यापक है और इसी गहन आस्था पर पंचायती ढांचा टिका हुआ है तथा आदिकाल से निरन्तर पनप रहा है।


खाप उत्पत्त्ि


ग्रामीण स्तर पर परस्पर विवादों का निपटारा करते समय ग्राम पंचायतें कारगर मानी जाती थीं। यदि कोई मुद्दा दो या दो से अधिक गाँवों में उलझ जाता और उस पर विचार विमर्श करके निर्णय लेना होता था तो उस अवस्था में खाप पंचायतंे कारगर होती थीं। सामाजिक नियन्त्राण के उद्देश्य के लिए कई गाँवों की राजनैतिक एवं सामाजिक पंचायत के रूप में संगठित एक इकाई को खाप कहते हैं। भाईचारे की पंचायतों का आधार मूल रूप से गोत्राों पर आधारित है। प्रथम तो छत्तीस बिरादरी की खाप की पंचायत जिन्हें चौगामा, अठगामा, बारहा, चौबीसी, चौरासी तथा ३६० पालम महा-पंचायत और दसौड़ी पंचायत (सार्वभौम) आदि कहा गया है। इन पंचायतों की भूमिका परस्पर झगड़ों को भाईचारे द्वारा निपटाना है जिसमें परस्पर खापों के आपसी विवाद भी शामिल हैं। इस प्रकार की छत्तीस बिरादरी की खाप पंचायतों का महत्व आज भी बखूबी कायम है क्योंकि इन पंचायतों ने परस्पर झगड़ों का निपटारा करके भाईचारा कायम रखने का कार्य तथा सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में सराहनीय कार्य किया है।
पंचायतों का दूसरा स्वरूप गोत्रा के आधार पर गठित पंचायतों का भी अपना विशेष महत्व रहा है। जैसे दहिया, अहलावत, मलिक उर्फ गठवाला, दलाल, सांगवान, हुड्डा, काद्यान, श्योराण, ओहल्याण, नैन, लाठर, छिल्लर-छिकारा, रुहिल-राठी तथा खत्राी इत्यादि गोत्राों के नामों पर खापें बनी हुई हैं। इस प्रकार की गोत्रा पंचायतों में ज्यादातर मसले विवाह सम्बन्धी विवादों के ही समाधान के लिए आते रहे हैं जिनका समाधान भी सामाजिक परिस्थितियों में होता चला आ रहा है।


कार्यप्रणाली


खाप पंचायत जैसी संस्था लोकतांत्रिाक आधार पर गठित की जाती है और जिस पर इनकी कार्यप्रणाली टिकी हुई है। खापों के जरिए झगड़ों को बिना किसी कोर्ट-कचहरी के भाईचारे से ही निपटाया जाता रहा है। इन निर्णयों को ‘पंच-परमेश्वर’ का निर्णय समझा जाता रहा है। इस लोकतांत्रिाक परम्परा में पंचायत का चाहे कोई भी रूप अथवा स्तर रहा हो, सभी में सार्वजनिक सहमति को प्राथमिकता दी जाती थी और हर किसी को अपनी बात कहने अथवा सुझाव देने की पूरी छूट थी। इसी वजह से पंचायती फैसलों को सर्वमान्यता मिलती थी और कोई भी किसी तरह का संशय अथवा विवाद सामने नहीं आ पाता था। यह भी उल्लेखनीय है कि इन खाप पंचायतों की प्राय: कोई भी कार्यवाही लिखित नहीं होती थी। निर्णय तथा कार्यवाही मौखिक तथा पांरपरिक तरीके से होती थी। इनके ये मौखिक निर्णय सर्वमान्य कानून की तरह होते थे। इनको लागू करने के लिए केवल सामाजिक स्वीकृति ही एकमात्रा साधन था।


 सर्वखाप पंचायत की यह विशेषता रही है कि इसकी कार्यप्रणाली को धर्म, रूढ़िवादिता तथा साम्प्रदायिक संकीर्णता छूकर भी नहीं गई। लोगों को उतना डर देवता के शाप का नहीं था, जितना कि पंचायत के परमात्मा स्वरूप पंचों का। खाप पंचायत हिन्दू एवं मुसलमान के नाम पर कभी नहीं बंटीं। खाप पंचायतें शान्तिप्रिय व अहिंसावादी रही हंै लेकिन हिंसात्मक चुनौती मिलने पर सशस्त्रा मुकाबला और सामना करने के लिए तैयार भी रहती थीं।
खाप पंचायतों का आह्वान करने और लोगों को एकत्रिात करने की अपनी एक विशेष प्रक्रिया थी। खाप पंचायत के मुखिया के पास जानकारी अथवा अपनी शिकायत दायर की जाती थी। मुखिया प्रभावशाली व्यक्तियों की सलाह ले कर योग्य पंचों का चयन करता था। प्राय: विवादग्रस्त जाति वर्ग व समूह के प्रभावशाली चौधरियों या उनके प्रतिनिधियों को बतौर पंचायती सदस्य सम्मिलित किया था। तब जाकर खाप की पंचायत बुलाई जाती थी। ये सभी पंचायतें कार्य आरम्भ करने से पहले उपस्थित व्यक्तियों में से ही कार्यवाही संचालन के लिए प्रधान का चुनाव भी मौके पर ही करती थीं। पंच परस्पर सलाह करके मौके पर ही निर्णय करती थीं। यही परम्परा आज भी प्रचलित है।


ऐतिहासिक पृष्ठभूमि


। इनके छोटे-छोटे गणराज्य देश-विदेशों में भी रहे हैं। इन यौद्धेय जाटों का गणराज्य वैदिक काल के बाद अस्तित्व में आया था। शिलालेखों के अनुसार सम्राट चन्द्र गुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य (३८२-४१४ ईस्वी) ने योद्धेयों को पराजित करके इन पंचायती गणराज्यों को समाप्त कर अपने साम्राज्य में मिला लिया था। प्राय: फिर भी कहीं-कहीं छोटी-छोटी पंचायतें और पंचायती खापें अपनी जनता की रक्षा तथा न्याय हेतु अस्तित्व बचाने में कामयाब हो गई थीं, चाहे वे कम असरदार थीं। इनका पुनर्जन्म सातवीं शती ईसा बाद में हुआ।
सन ६४३ में सम्राट हर्षवर्धन (सन ६०६-६४७) के शासनकाल में कन्नौज के स्थान पर एक विशाल-हरियाणा सर्वखाप पंचायत का सम्मेलन बुलाया गया जहां इन खापों का एक गणतान्त्रिाक संघ बनाया गया जिसका नाम ‘हरियाणा सर्वखाप पंचायत’ रखा गया। तब इसके मुख्य स्थान थे µकुरुक्षेत्रा (स्थाणेश्वर), दिल्ली, रोहतक, हरिद्वार और कन्नौज। सन ६४३ से २००८ तक के १३६५ वर्ष के समय को चार भागों में विभाजित करके इन खाप पंचायतों के विकास का विवरण कुछ इस प्रकार बनता हैµ
१. सन ६४३ से लेकर १२०६ ईस्वी तक
पौराणिक काल से लेकर सन ६४३ ईस्वी तक खाप और सर्वखाप पंचायतों ने ‘पूगा’ पंचायत तक ऐसे कई कार्य किए जिनसे प्रमाणित होता है कि उन्हांेने बाहरी आक्रमणकारियों से अपनी रक्षा करने का साहसिक प्रयास किया तथा देश के भीतर धर्म और जातीय भेदभाव को जन्म देने वालों का विरोध किया। धर्म के नाम पर अंधविश्वासों का जाल बिछाने वालों का घेरा तोड़ा, छुआछूत का विरोध किया तथा राजसत्ता का मुकाबला करके लोक प्रशासन की पद्धति को अमलीजामा पहनाया और प्रत्येक संकट के समय बड़ी से बड़ी कुर्बानी दी।
इस दौरान तत्कालीन राजाओं ने जाटों की खाप पंचायतों के वीरों की सहायता से हमलावर हूणों को देश के बाहर सीमाप्रान्तों की ओर खदेड़ा। रावी तट पर इन्होंने ही यूनान से आये सिकन्दर महान को रोका था और लौटते समय उस पर बाण का ऐसा घाव दिया कि वह स्वस्थ नहीं हो सका और सिंधु दरिया के जरिये बाहर समुद्र की ओर निकलते हुए अपने किश्ती बेड़े के पोत में ही मर गया। सन ७१०-११ ईस्वी में सिन्ध पर आक्रमण करने वाले मोहम्मद बिन कासिम से खाप पंचायतों ने टक्कर ली थी। इस तरह सर्वखाप योद्धा अनेक युद्धों मंे अनेक बार लड़े, मिटे, मारे गये और उखडे+, पर झुके नहीं। सन १०२६ ईस्वी में सोमनाथ का विध्वंस करके लौटते समय महमूद गज+नवी को पंजाब से परे सीमाप्रान्त में रहने वाले खोखर जाटों की खाप ने बेतहाशा लूटा था। इसलिये महमूद गज+नवी सन १०२६ ईस्वी में आखिरी बार हिन्दुस्तान आया ताकि सोमनाथ के मंदिर को लूट सके और जाटों को सबक सिखा सके परन्तु वापिस जाते समय उसे राजपूत और जाट योद्धाओं ने इतना तंग किया कि लूट का सारा माल बरबाद हो गया और वह अपने चंद साथियों के साथ परेशान हाल ही गज+नी पहंुचा था।
सन ११९१ और ११९२ ईस्वी में तरावड़ी और हांसी के पास तुर्क और अफगानों के साथ भीषण युद्धों में हजारों जाट वीरगति को प्राप्त हुए थे। इन युद्धों में दिल्ली का शासक पृथ्वीराज चौहान बंदी बना लिया गया था जिसे घोरी ने गज+नी ले जाकर अनेक यातनाएं देने के बाद कत्ल कर दिया था। इसके बहुत बाद सन १२०६ ईस्वी में एक सर्वखाप पंचायत हुई थी जिसमें उक्त पराजय के मíेनजर यह निर्णय लिया गया कि हम अपनी रक्षा स्वयं करेंगे और दीन-धर्म की रक्षा करने के लिए अपने प्राण भी न्योछावर कर देंगे। इस पंचायत में यह भी विचार हुआ कि विभिन्न खापों से शक्तिशाली नौजवानों को लेकर ६० हजार से लेकर १ लाख सैनिकों तक की सेना गठित कर ली जाए तथा भिन्न-भिन्न खापों के मध्य शान्ति एवं एकता कायम रखी जाए।
इसी प्रकार ११९७ ईस्वी में बड़ौत के स्थान पर एक सर्वखाप पंचायत सम्पन्न हुई थी। इसमें बारह खापों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था और पंचायत ने दिल्ली विद्रोह को दबाने के लिए अपनी सेना भेजी जिसमें नब्बे हजार वीर सैनिक थे। सुल्तान की सेना के साथ डटकर लड़ाई हुई जिसमें नौ हजार सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी। अन्तत: कुतबुíीन ने पंचायती सैनिकों का लोहा मान लिया।
वर्ष १२०५ ईस्वी में खोखर खाप के विद्रोह को दबाने के लिए शहाबुíीन मोहम्मद घोरी (११९२-१२०६ ईस्वी) फिर भारत आया और उसने विद्रोह को दबा दिया। परन्तु जब वह वापिस गज+नी जा रहा था तो १५ मार्च, १२०६ ईस्वी को धम्यक के स्थान पर २५ हजार खोखर जाटों की सेना ने उस पर धावा बोल दिया।


२. सन् १२०६ से १८५७ ईस्वी तक


इस अवधि के दौरान सर्वखाप पंचायतों ने बड़े उतार चढ़ाव देखे। बादशाहों के साथ घमासान युद्ध किये और उन्हंे हराया। कभी-कभी तो इन्हें सन्धि करने को विवश होना पड़ा और कभी इन्होंने अपनी शते± भी मनवाइ±। ६५० वर्ष के इतिहास में सर्वखाप पंचायतों ने कई युद्धों में भाग लिया जिनमें मुख्य रूप से मुल्तान युद्ध, हिन्डन और काली नदी के स्थान पर अलाउíीन खिलज+ी (१२९६-१३१६ ईस्वी) के साथ युद्ध, तैमूरलंग के विरुद्ध हरियाणा सर्वखाप पंचायतों का जमावड़ा (१३९८ ईस्वी) तथा अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफ’र की सहायतार्थ सर्वखापों की भूमिका प्रमुख है। शासन से पंचायती सर्वखापों के टकराव के मुख्य कारण राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, प्रशासनिक आदि थे जिसका विस्तृत विवरण इस प्रकार है :
सुल्तान अल्तमश (१२१०-१२३६ ईस्वी) ने खाप पंचायतों से समझौता किया और शान्तिपूर्वक राज किया। इसके उपरान्त बहुत थोड़े समय के लिए हरियाणा की सर्वखाप पंचायत ने रजि+या बेगम (१२३६-१२४० ईस्वी) की सहायता के लिए वर्ष १२३६ में अपनी सेनाएं भेजीं और जिसके फलस्वरूप रजि+या बेगम ने प्रसन्न होकर ६० हजार दुधारू गाय व भैंसें पंचायत के पहलवानों तथा सैनिकों को दूध पीने के लिए प्रदान कीं।
वर्ष १२६६ ईस्वी में गंगा स्नान के पर्व पर भिन्न-भिन्न खापों ने पूजा स्थानों और धार्मिक पवो± पर लगाए गये जजिया कर को बन्द कराने के लिए बादशाह नसीरूíीन मोहम्मद शाह प्रथम (१२४६-१२६६ ईस्वी) के पास प्रतिनिधि भेजे जिसने पेश की गई शतो± को सहर्ष स्वीकार कर लिया।
खाप पंचायत के सन्दर्भ मंे शोरम गांव एक विशेष स्थान रखता है क्योंकि सर्वखाप पंचायत का यह गांव एक तरह से मुख्यालय रहा जोकि खाप पंचायतों के आरम्भ से स्वतन्त्राता प्राप्ति तक चला आया है। यह शोरम गांव मुजफ्“फ’रनगर शहर से १५ मील दूर पश्चिम में स्थित है।
इसी प्रकार १२६६ ईस्वी में शोरम गांव में जाकर बादशाह बलबन (१२६६-१२८६ ईस्वी) ने मंगोल हमलावरों को देश से भगाने के लिए सर्वखाप पंचायत की सहायता मांगी थी जिसे सहर्ष प्रदान किया गया था। उल्लेखनीय है कि सेना के ६५ हजार मल्ल योद्धाओं को सर्वखाप पंचायतों ने मंगोलों को खदेड़ने के लिये युद्ध में भेजा था।
१२९७ ईस्वी में सर्वखाप पंचायत का सम्मेलन शिकारपुर में हुआ, जिसमें लगभग ३०० जाट प्रतिनिधियों ने भाग लिया। अलाउदीन खिलजी (१२९६-१३१६ ईस्वी) ने भी पंचायत की तमाम शतो± को मंजूर किया और पंचायतों के साथ मित्राता स्थापित की।
१३२६ ईस्वी में मुहम्मद शाह तुगलक (१३२५-१३५१ ईस्वी) का शासन था और बादशाह की जनता के प्रति कठोर नीति थी। आनंद सिंह राणा की अध्यक्षता में सर्वखाप पंचायतों की बैठक हुई और पंचायत के झण्डे के नीचे एकत्रा होकर शाही लूट से किसानों तथा जनता को बचाया।
सर्वखाप पंचायत का सबसे महत्वपूर्ण सम्मेलन सन १३५२ में हुआ था जिसमें २१० वीरों को छांटकर फिरोज+शाह तुग+लक (१३५१-१३८८ ईस्वी) के दरबार में दिल्ली भेजा गया। इन २१० वीरों के बलिदानी दल में ६६ जाट, २५ ब्र्राãण, १५ अहीर, १५ गुर्जर, १० वैश्य, ९ हरिजन, ८ बढ़ई, ६ लुहार, ५ सैनी, ५ जुलाहे, ५ तेली, ४ कुम्हार, ४ खटीक, ४ रोड़, ३ रवे, ३ धोबी, २ नाई, २ जोगी, २ गुसाइ± और २ कलाल शामिल थे।
इन वीरों ने कार्तिक पूर्णिमा को गढ़ मुक्तेश्वर में गंगा स्नान करके दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। दिल्ली पहुँचकर बादशाह के सामने अपनी मांगे रखीं। बादशाह ने इनकी कोई बात नहीं मानी और इनको कत्ल करने का हुक्म दे दिया। इस तरह इन सभी वीरों ने अपना बलिदान समाज के लिए दे दिया। इससे सारे देश में अव्यवस्था फैल गयी और बादशाह की खुली अव्हेलना हुई।
१३९८ ईस्वी में तैमूर लंग ने भारत पर आक्रमण कर दिया। खाप पंचायतों द्वारा नियुक्त वीरों ने तैमूर की सेना से अनेक स्थानों पर टक्कर ली। दिल्ली से सहायता न मिलने के बावजू’द सर्वखाप पंचायत के वीर सेनानियों ने तैमूर लंग के दान्त खट्टे कर दिए थे।
सन् १४९० में सिकन्दर लोदी शासनकाल में सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन बड़ौत में हुआ और बढ़े हुए जजिया का विरोध किया गया। विरोध इतना तीव्र था कि सिकन्दर लोदी (१४८९-१५१७ ईस्वी) ने घुटने टेक दिये और १५०५ ईस्वी में सर्वखाप पंचायत के मुख्य कार्यालय शोरम गाँव में आकर ५०० अशर्फियां पुरस्कारस्वरूप प्रदान कीं।
इब्राहिम लोदी (१५१७-१५२६ ईस्वी) के विरुद्ध उसके सगे भाई जलालुíीन लोदी ने बगावत कर दी थी जिसे दबाने के लिए इब्राहिम लोदी ने सर्वखाप पंचायत से मदद मांगी थी। यह सहायता सर्वखाप पंचायत ने ४९ हजार वीर सैनिक भेजकर की।
राणा सांगा ने बाबर (१५२६-१५३० ईस्वी) के विरुद्ध १५२७ ईस्वी में खानवा के युद्ध में सर्वखाप पंचायत से सहायता मांगी। सर्वखाप पंचायत ने २५ हजार वीर सैनिक महाराजा धौलपुर के नेतृत्व में राणा सांगा की ओर से बाबर के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजे। हालांकि देसी सेनाएं हार गइ लेकिन खाप के पराक्रम व संगठन को देखकर बाबर इनसे बेहद प्रभावित हुआ। सन १५२८ में बाबर हरियाणा सर्वखाप पंचायत के मुख्यालय गाँव शोरम में पहुँचा। शोरम गांव के चौधरी को १ रुपया सम्मान का और एक सौ पच्चीस रुपये पगड़ी के तौर पर जीवनभर देने का वायदा किया।
‘आईन-ए-अकबरी’ के अनुसार सर्वखाप पंचायत ने बादशाह जलालुíीन अकबर (१५५६-१६०५ ईस्वी) के आदेश को भी ठुकरा दिया था। यह एक अद्वितीय उदाहरण है। सन १५७६ में महाराणा प्रताप द्वारा अकबर की सेनाओं के विरुद्ध हल्दीघाटी में लड़े गये युद्ध में सर्वखाप पंचायतों ने बीस हजार सैनिक भेज कर सहायता की थी।
औरंगज+ेब के शासनकाल में सर्वखाप पंचायतों को शासन का कोपभाजन बनना पड़ा और इसके दौरान सर्वखाप पंचायतों की कमर तोड़ दी गयी। औरंगज+ेब के अत्याचारों के विरोध की ज्चाला सामूहिक रूप से तेज’ हो उठी। इसके बहुत बाद सन १८५५ में गढ़गंगा पर ५ अक्तूबर को एक सभा का आयोजन किया गया जिसमें लिये गये एक निर्णय के अनुसार अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत का बिगुल बजा दिया गया।
सन १८५७ के प्रथम स्वतन्त्राता संग्राम में खाप पंचायतों का संगठन पुन: चरम सीमा पर पहुंच गया। इस दौरान पंचायती सेना में मुख्य तौर पर जाट, अहीर, राजपूत और गुर्जर थे। हरियाणा सर्वखाप पंचायत के संगठन ने अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक कार्य किए। सबसे पहले विरोध का झण्डा Åंचा किया गया। इस विरोध के केन्द्र जमुना नदी के दोनों ओर थे। मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बुलन्द शहर, बहादुरगढ़, रेवाड़ी, रोहतक, सिरसा, हिसार और पानीपत में जबरदस्त विद्रोह हुआ था। ‘विद्रोह’ में हिस्सा लेने वालों को पकड़ कर सजा के तौर पर गिरड़ी के नीचे पेला गया और उनकी जायदादें छीन लीं गयी जिनकी नीलामी हुई थी। देशभक्तों को सरे आम वृक्षों पर फांसी पर लटका दिया गया।
२३ जून, १८५७ को दिल्ली में सर्वखाप पंचायत के १००० प्रमुखों को सम्राट बहादुर शाह जफर ने सम्बोधित करते हुए स्पष्ट कहा था -‘सर्वखाप पंचायत के नेताओ! अपने पहलवानों को लेकर फिरंगियों को निकालो। आप में शक्ति है और जनता आपके साथ है। आपके पास योग्य और वीर नेता हैं। शाही कुल में नौजवान लड़के हैं। परन्तु उन्होंने कभी युद्ध नहीं किया, बारूद का धुंआ नहीं देखा। आपके जवानों ने अंग्रेजी सेना की शक्ति की कई बार जांच की है। आजकल यह राजनीतिक बात है कि नेता राज घराने का हो। परन्तु राजा और नवाब गिर चुके हैं। उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर ली है। आप पर देश को अभिमान और भरोसा है। आप आगे बढ़ें और फिरंगियों को देश से बाहर निकालें। निकालने पर एक दरबार किया जाए और राजपाट स्वयं पंचायत संभाले। मुझे कुछ उजर न होगा।’
इसी तरह १ जुलाई, १८५७ को सम्राट बहादुरशाह जफ+र ने सर्वखाप पंचायत के प्रधान को एक विशेष पत्रा लिखा, जिसमें उन्हांेने अपने दिल की बात रखते हुए लिखा था -‘सर्वखाप पंचायत के प्रधान मुल्क हिन्द में रहने वाले हर कौम और मज+हब के लोगों से मेरी इल्तिज’ा है कि इस नामुराद फिरंगी कौम से मुल्क की हुकूमत को छीनकर मुल्क के काबिल और समझदार व खुदापरस्त लोगों की एक पंचायत इकëी करो और उनके हाथ मेंे मुल्क का आईन (विधान) बनाकर हुकूमत को चलाएं। मैं अपने सारे अख्तियार उस पंचायत को बड़ी खुशी के साथ देता हूँ।’
बादशाह के उपरोक्त पत्रा के मिलने के पश्चात सर्वखाप पंचायतों ने अपनी सैनिक शक्ति का संग्रह करना आरम्भ कर दिया और अन्य शक्तियों से सम्पर्क बढ़ाया। हरियाणा सर्वखाप पंचायत के ५ हजार मल्ल योद्धा सैनिक २ जुलाई को मुहम्मद बख्+त खां की रूहेलों की फौज के साथ, जिसमें १४ हजार पैदल सैनिक थे, दिल्ली पहुंच गये। सम्राट ने अपने अयोग्य पुत्रा मिर्जा मुगल को सेनापति पद से हटाकर बख्+त खां को प्रधान सेनापति और दिल्ली का गर्वनर नियुक्त कर दिया। ३ जुलाई को बख्+त खां ने दिल्ली के लाल किले के सामने ५२ हजार सैनिकों की परेड कराई और ४ जुलाई को अंग्रेज’ों पर आक्रमण कर दिया। इसी सिलसिले में बल्लभगढ़ के राजा नाहर सिंह की सेना दिल्ली की पूर्वी सीमा पर तैनात हुई और बख्+त खां ने इस मोर्चे की कमान भी राजा नाहर सिंह को थमा दी।
हरियाणा सर्वखाप पंचायत ने दिल्ली के चारों तरफ १६५ मील के क्षेत्रा में मुनादी करा दी कि भारतीय सेनाओं को रसद व जरूरी सामान मुहैया कराया जाएगा। अत: हरियाणा निवासियों ने सेना को खाद्य सामग्री एवं जरूरी चीजें अंग्रेजों के साथ युद्ध के दौर में उपलब्ध करवाइ±। सर्वखाप सेनाओं की इस घेराबन्दी से डरकर ब्रिटिश इंडिया के प्रथम वायसराय लार्ड कैनिंग (१८५६-१८६२ ईस्वी) ने इस मोर्चेबन्दी को तोड़ने के लिए और दिल्ली पर अधिकार करने के लिए जी तोड़ कोशिश की। इसी सिलसिले में ९ जुलाई, १८५७ को अंग्रेज’ी सेना, जिसकी संख्या २५०० थी, यमुना नदी पर किश्तियों का पुल बनाकर लालकिले के पिछवाड़े उतरी। पंचायती सैनिकों ने अंग्रेजों से जबरदस्त टक्कर ली और अनेक को मौत के घाट उतार दिया। इस मोर्चे पर सर्वखाप पंचायत के जाट, अहीर, गुर्जर, राजपूत वीरों ने अधिक संख्या में भाग लिया। यह लड़ाई लगभग तीन महीने चली। दोनों पक्ष खूब वीरतापूर्वक लड़े और खून की नदियां बह गइ±। दुर्भाग्यवश २४ सितम्बर, १८५७ को अंग्रेज’ी सेना ने दिल्ली पर पुन: कब्जा कर लिया। फिर अंग्रेजों ने जो दमनचक्र चलाया उसके सामने नादिरशाह और तैमूर लंग भी बौने पड़ गए थे।
३. सन १८५७ से १९४७ तक
सन १८५७ के प्रथम स्वतन्त्राता संग्राम में सर्वखाप पंचायतों की भूमिका के मíेनज+र अंग्रेज सरकार ने सर्वखाप पंचायतों तथा भाईचारा पंचायतों को जड़ से उखाड़ने की नीयत बना ली। फिर भी भाईचारा व गोत्रा पंचायतों ने किसी न किसी रूप में ग्रामीण समाज में अपना अस्तित्व बनाए रखा।
अंगे्रजी राज ने सर्वखाप पंचायतों की लोकप्रियता और मान्यता को देखते हुए इन्हें झूठमूठ के अधिकार देने का प्रयत्न किया। यद्यपि लार्ड रिपन (१८८०-१८८४ ईस्वी) जो स्वायत्त शासन के पिता माने जाते हैं, उन्हांेने भी उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में ही पंचायतों के लिए सराहनीय कार्य किए। परन्तु खाप पंचायतों की स्वायत्तता पर प्रहार होते रहे। खाप पंचायतों की प्रथा का असर धीरे-धीरे कम करने के लिए इनके बराबर में सरकारी पंचायतें खड़ी करने का प्रयत्न किया गया। इसी संदर्भ में ज्ञातव्य है कि सन १८५७ से १९४७ तक दमनचक्र और राजनैतिक अनिश्चितता के चलते सर्वखाप पंचायत की औपचारिक बैठक कभी नहीं बुलवाई गयी। वर्ष १९०७ ईस्वी में एक रॉयल कमीशन बैठाया गया। इस कमीशन ने कुछ सिफारशें कीं जिनमें पंचायतों को बहुत कम भागीदारी प्रशासन में दी गई। डाक्टर एनी बेसेन्ट ने उन सिफारिशों के प्रतियुत्तर में कहा था -‘बच्चे के हाथ पैर बांधकर आज’ाद छोड़ दो और उससे कहो कि वह चलना सीखे। वह अपंग हो जाएगा। फिर इसे खोलकर कहो कि वह चलना नहीं सीख सकता। अत: उसे आज’ाद नहीं छोड़ा जा सकता।’ उसी प्रकार से अंगे्रजी हकूमत में पंचायतों को कभी भी स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होने का अवसर प्राप्त नहीं होने दिया। इस प्रकार सर्वखाप पंचायतों का असर कम होता चला गया।
सर्वप्रथम उत्तरी भारत के हरियाणा प्रदेश में पंजाब ग्राम पंचायत एक्ट-१९१२ पास किया गया जोकि लागू नहीं हो सका और ग्रामीणों द्वारा बहिष्Ñत कर दिया गया। लोगों ने पुरानी परम्परा पर चलने वाली गोत्रा व भाईचारा वाली पंचायतों को ही महत्त्व दिया। सरकारी पंचायतों का बहिष्कार किया। इससे सबक लेकर सन १९२१ में कुछ सुधारों के साथ दूसरा एक्ट पास किया गया जिसका पहले की भांति बहिष्कार हुआ।
सन १९११ ईस्वी में सर्वगोत्रा मुखियाओं का एक महासम्मेलन बुलाया गया था। यह महासम्मेलन दहिया खाप के प्रसिद्ध गांव बरोना, तत्कालीन जिला रोहतक लेकिन वर्तमान में जिला सोनीपत में आयोजित हुआ था। इसके मुखिया दहिया चालीसा के प्रधान मटिण्डू गांव के चौधरी एवं जैलदार पीरूसिंह थे और उस समय के ब्रिटिश राज के अधिकारियों द्वारा पर्यवेक्षक भेजने की भी आवश्यकता पड़ी थी। इसके उपरान्त एक खाप पंचायत तत्कालीन जिला रोहतक लेकिन वर्तमान में जिला झज्जर के गांव बेरी में हुई थी। गवर्नमेंट आWफ इण्डिया एक्ट-१९३५ पर आधारित पंजाब ग्राम पंचायत-एक्ट पास हुआ था। इसमें पंचायतीराज का ढांचा कानूनी आधार पर बनाया गया और भाईचारे वाली पंचायतों का सरकारीकरण कर दिया गया।
यद्यपि द्वितीय महायुद्ध के चलते इस एक्ट के तहत पंचायतों की ओर अंग्रेज सरकार का कोई विशेष ध्यान नहीं था फिर भी पंचायतों ने इस दौरान बताए हुए पथ पर चलकर आधुनिक रूप प्राप्त किया और आज’ादी से पूर्व भाईचारा व खाप पंचायतों को भी फिर से जीवित करने का सफल प्रयत्न किया।

४. सन १९४७ से २००८


भारत के संविधान के अध्याय-चार में राज्य नीति के निर्देशक सिद्धान्त दिए गये हैं। इस अध्याय के अनुच्छेद ४० मंे यह भी लिखा है कि ‘राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों।’
इसी प्रावधान के अन्तर्गत पंचायत के इतिहास में एक नया मोड़ आया और केन्द्रीय सरकारों ने सार्वजनिक कायो± को सामूहिक रूप से करने के लिए तथा ग्रामीण समाज का कद Åंचा उठाने के लिए पंचायती राज की स्थापना नए सिरे से की ताकि ग्रामोन्नति के लिए पंचायतों को जि’म्मेदार बनाने का भरसक प्रयत्न किया जा सके। सन १९५२ में पंजाब ग्राम पंचायत एक्ट पास कर दिया गया, जिसमें यह प्रयत्न किया गया कि बापू के स्वप्न का ग्राम राज स्थापित किया जा सके।
खाप पंचायत मुखिया सम्मेलन, रोहतक
८ सितम्बर, २००२ को सर्वगोत्रा मुखिया सम्मेलन का आयोजन गैर सरकारी संस्था -हरियाणा नवयुवक कला संगम, ने किया था। इस सम्मेलन का संचालन ले. कर्नल चन्द्र सिंह दलाल ने किया था जिसका अध्यक्ष स्वर्गीय प्रिंसीपल हुकम सिंह को बनाया गया था। सम्मेलन के उपरान्त लिए गये निर्णयों के विषयों से सम्बन्धित एक विवरणिका का प्रकाशन व सम्पादन श्री सतीश कुण्डू द्वारा किया गया है। उल्लेखनीय है कि यह सम्मेलन ऐतिहासिक दीनबन्धु सर छोटूराम धर्मशाला के सभागार में सम्पन्न हुआ था जिसमें ९० की संख्या में गोत्रा मुखिया एवं सैंकड़ों की संख्या में गोत्रा प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें सामाजिक दिक्कतों एवं संबंधित विषयों पर छह घण्टे तक खुल कर विचार विमर्श किया गया था। सर्वसम्मति से दो निर्णय लिये गये: (१) विवाह के लिये किये जाने वाले रिश्ते के लिये केवल मां और अपने गोत्रा की ही मान्यता प्रमुख होगी जिसके लिये दादी का गोत्रा मानना केवल वैकल्पिक होगा। (२) जिस गांव में अल्पसंख्यक गोत्रा भू-भाई के तौर पर रहता हो और न केवल उनकी अच्छी-खासी संख्या हो वरन उनका पृथक चौपाल भवन एवं नंबरदार हो तो ऐसे में उस गोत्रा की कन्या गांव में वधू बन कर नहीं आ सकती।

सर्वखाप पंचायत जाट जाति की सर्वोच्च पंचायत व्यवस्था है। इसमें सभी ज्ञात पाल, खाप भाग लेती हैं। जब जाति , समाज, राष्ट्र अथवा जातिगत संस्कारों, परम्पराओं का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है अथवा किसी समस्या का समाधान किसी अन्य संगठन द्वारा नहीं होता तब सर्वखाप पंचायत का आयोजन किया जाता है जिसके फैसलों का मानना और दिशा निर्देशानुसार कार्य करना जरुरी होता है। सर्वखाप व्यवस्था उतनी ही पुराणी है जितने की स्वयं जाट जाति। समय-समय पर इसका आकर, कार्यशैली और आयोजन परिस्थितियां तो अवश्य बदलती रही हैं परन्तु इस व्यवस्था को आतताई मुस्लिम, अंग्रेज और लोकतान्त्रिक प्रणाली भी समाप्त नहीं कर सकी।

शिवजी के आव्हान पर पंचायत सेना ने राजा दक्ष का सर काट डाला था

'प्राचीन काल के गणराज्यों की सञ्चालन व्यवस्था सर्वखाप पद्धति पर आधारित थी. शिवाजी के आव्हान पर की पंचायती सेना ने राजा दक्ष का सर काट डाला था। महाराजा शिव की राजधानी कनखल (हरिद्वार) में थी. एक बार दक्ष ने यज्ञ किया था जिसमें शिव को छोड़कर सभी राजाओं को बुलाया था। पार्वती बिना बुलाये ही वहां पहुंची. वहां पर शिव का अपमान किया गया. यह अपमान पार्वती से सहन नहीं हुआ और वह हवनकुंड में कूद कर सती हो गई. शिव को जब पता लगा तो बहुत क्रोधित हुए। शिव ने वीरभद्र को बुलाया और कहा कि मेरी गण सेना का नेतृत्व करो और दक्ष का यज्ञ नष्ट कर दो. वीरभद्र शिव के गणों के साथ गए और यज्ञ को नष्ट कर दक्ष का सर काट डाला। सर्व खाप पंचायत और उसके गणों की यह सबसे पुरानी घटना है।

राम की व्यथा सुन हनुमान ने बुलाई थी खाप पंचायत

रामायण काल में इतिहासकार जिसे वानर सेना कहते हैं वह सर्वखाप की पंचायत सेना ही थी जिसका नेतृत्व वीर हनुमान ने किया था और जिसका प्रमुख सलाहकार जामवंत नामक वीर था. राम और लक्ष्मन की व्यथा सुनकर हनुमान और सुग्रीव ने सर्व खाप पंचायत बुलाई थी जिसमें लंका पर चढाई करने का फैसला किया गया. उस सर्व खाप में तत्कालीन भील, कोल, किरात, वानर, रीछ, बल, रघुवंशी, सेन, जटायु आदि विभिन्न जातियों और खापों ने भाग लिया था. वानरों की बहुतायत के कारण यह वानर सेना कहलाई. इस पंचायत की अध्यक्षता महाराजा सुग्रीव ने की थी।

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